मध्य-पूर्व में यहूदी मुल्क इसराइल का गठन संयुक्त राष्ट्र के ज़रिए 1948 में किया गया. यानी भारत की आज़ादी के लगभग एक साल बाद. इसराइल बनने के पहले फ़लस्तीनी इलाक़े में यहूदी शरणार्थी के तौर पर रह रहे थे.आज हम इसी बात की पड़ताल करेंगे किया बाकई इस्लामिक देशों की अनदेखी से भारत इसराइल के क़रीब आया..इसराइल के गठन में अमेरिका और ब्रिटेन की भी अहम भूमिका रही. यहूदी मूल रूप से फ़लस्तीनी इलाक़े के थे, लेकिन 71 ईस्वी में रोमन-यहूदी युद्ध में उन्हें बेदख़ल होना पड़ा था. पहले विश्व युद्ध के बाद फ़लस्तीन ब्रिटिश शासन के अधीन आ गया. इसके बाद बड़ी संख्या में यहूदी वापस आने लगे जबकि यहाँ अरब के लोग रह रहे थे…अरबों के बीच डर पैदा होने लगा कि उनकी ज़मीन पर यहूदी बस रहे हैं. अरबों ने यहूदियों के आने का विरोध किया और उन्होंने अपने लिए स्वतंत्र फ़लस्तीन की मांग की. लेकिन 1933 तैंतीस के बाद जर्मनी में यहूदियों पर अत्याचार के कारण उनका आना जारी रहा और 1940 के अंत तक फ़लस्तीनी आबादी में आधे यहूदी हो गए.1939 उनतालीस में ब्रिटिश सरकार ने समस्या को सुलझाने के लिए अगले 10 साल में अरबों के लिए एक मुल्क का गठन और यहूदियों के आने पर रोक लगाने का प्रस्ताव रखा लेकिन इस बार यहूदियों ने इसे नकार दिया. दूसरे विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश शासन कमज़ोर हो चुका था और उसे लगा किया यह समस्या अब उससे नहीं सुलझेगी. ऐसे में उसने संयुक्त राष्ट्र से कहा कि वही इस जटिल समस्या को सुलझाए.इसका नतीजा यह हुआ कि नवंबर, 1947 सैंतालीस में संयुक्त राष्ट्र ने फ़लस्तीन के विभाजन का प्रस्ताव पास किया और एक यहूदी मुल्क बनाने का रास्ता साफ़ हुआ. मई 1948 अड़तालीस में डेविड बेन ग्युरियन ने स्वतंत्र देश इसराइल की घोषणा की और वही इसराइल के पहले प्रधानमंत्री बने.इस नए-नवेले देश पर बनने के बाद ही मिस्र, सीरिया, जॉर्डन, इराक़ और लेबनान ने हमला कर दिया. अपने गठन के बाद से इसराइल प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अरब देशों से युद्ध में शामिल रहा. इसराइल बनने के बाद से मध्य-पूर्व इसराइल और अरब के देशों के बीच का जंग का मैदान बन गया.
1937सैंतीस में ब्रिटिश शासन ने पील कमिशन का गठन किया ताकि इस समस्या को दो मुल्कों का गठन कर सुलझाया जा सके. एक मुल्क अरबों के लिए और एक यहूदियों के लिए. लेकिन अरबों ने इस प्रस्ताव को पूरी तरह से नकार दिया.भारत और इसराइल के राजनयिक संबंधों का इतिहास बहुत लंबा नहीं है. भारत ने इसराइल के बनने के तुरंत बाद एक स्वतंत्र मुल्क के रूप में मान्यता नहीं दी थी. भारत इसराइल के गठन के ख़िलाफ़ था.भारत ने संयुक्त राष्ट्र में इसके ख़िलाफ़ वोट किया था. भारत के समर्थन के लिए मशहूर वैज्ञानिक आइंस्टाइन ने नेहरू को ख़त लिखा था. लेकिन नेहरू ने आइंस्टाइन के ख़त को भी नकार दिया था.आइंस्टाइन ने नेहरू को लिखे खत में कहा था,सदियों से यहूदी दरबदर स्थिति में रहे हैं और इसका खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ रहा है. लाखों यहूदियों को तबाह कर दिया गया है. दुनिया में कोई ऐसी जगह नहीं है, जहाँ वे ख़ुद को सुरक्षित महसूस कर सकें. एक सामाजिक और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के नेता के रूप में मैं आपसे अपील करता हूँ कि यहूदियों का आंदोलन भी इसी तरह का है और आपको इसके साथ खड़ा रहना चाहिए.”नेहरू ने आइंस्टाइन को जवाब में लिखा था, ”मेरे मन में यहूदियों को लेकर व्यापक सहानुभूति है. मेरे मन में अरबों को लेकर भी सहानुभूति कम नहीं है. मैं जानता हूँ कि यहूदियों ने फ़लस्तीन में शानादार काम किया है. लोगों के जीवन स्तर को बेहतर बनाने में बड़ा योगदान दिया है, लेकिन एक सवाल मुझे हमेशा परेशान करता है. इतना होने के बावजूद अरब में यहूदियों के प्रति भरोसा क्यों नहीं बन पाया?”..इंडिया इसराइल पॉलिसी नाम की अपनी किताब में कुमारस्वामी ने लिखा है कि भारत को डर था और आशंका थी कि इसराइल से पूर्ण राजनयिक रिश्ते क़ायम करने से मध्य-पूर्व के और देश नाराज़ न हो जाएँ, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.हालाँकि जेएन दीक्षित ने लिखा है कि उन्हें प्रधानमंत्री राव ने निर्देश दिया था कि अरब देशों में भारत के सभी राजदूतों को समझा दिया जाए ताकि वे अपनी बात ठीक से रख सकें.जेएन दीक्षित ने अरब देशों की नाराज़गी को लेकर अपनी किताब ‘माई साउथ ब्लॉक इयर्स: मेमोरिज ऑफ़ अ फ़ॉरेन सेक्रेटरी’ में लिखा है, ”अरब देशों के कुछ राजदूतों ने भारत के इस फ़ैसले को लेकर आपत्ति जताई और कहा कि भारत को इसका ख़मियाज़ा भुगतना पड़ेगा. हमने फ़ैसला किया कि जो आपत्ति जता रहे हैं, उन्हें सीधा जवाब देना है, झुकना नहीं है मैंने कहा कि भारत ने अंतरराष्ट्रीय मसलों पर कई इस्लामिक देशों का समर्थन किया लेकिन कश्मीर के मामले में हमे समर्थन नहीं मिला. मैंने ये भी कहा कि भारत अपनी संप्रभुता में किसी किस्म की दख़लअंदाज़ी के सामने नहीं झुकेगा और अपने हितों के लिए काम करना जारी रखेगा. अरब के मीडिया में भारत की आलोचना हुई. कुछ लोगों ने भारत के इस फ़ैसले पर सवाल उठाए. लेकिन इससे भारत और अरब के संबंध प्रभावित नहीं हुए.”आज़ादी के बाद से भारत के संबंध मध्य-पूर्व और अरब के मुस्लिम देशों से संबंध काफ़ी गहरे रहे लेकिन कश्मीर के मामले में इनका रुख़ पाकिस्तान के साथ ही रहा. 1969 में मोरक्को के रबात में इस्लामिक देशों के शिखर सम्मेलन का आयोजन किया गया और इसमें शामिल होने के लिए भारत को भी बुलाया गया था. लेकिन पाकिस्तान के विरोध के बाद भारत से आमंत्रण वापस ले लिया गया.1971 में ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन यानी ओआईसी का गठन हुआ तो इसका भी कश्मीर को लेकर रुख़ पाकिस्तान के पक्ष में ही रहा. 1991 में ओआईसी के सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों का सम्मेलन कराची में हुआ और इसमें जम्मू-कश्मीर में फ़ैक्ट फ़ाइंडिंग मिशन भेजने का प्रस्ताव पास किया गया. भारत ने इस मिशन को अनुमति नहीं दी. इसके बाद ओआईसी ने भारत की निंदा की.
कई लोग मानते हैं कि भारत ने मध्य-पूर्व के इस्लामिक देशों के पाकिस्तान परस्त रुख़ को देखते हुए इसराइल को गले लगाया. भारत के पास एक तर्क ये भी था कि इसराइल एक लोकतांत्रिक देश है.केंद्र में पहली बार बीजेपी के नेतृत्व में सरकार आई और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो इसराइल के साथ रिश्ते में और गहराई आई. वाजपेयी के शासन काल में इसराइल के साथ आर्थिक, सामरिक, विज्ञान-तकनीक और कृषि के क्षेत्र में कई अहम समझौते हुए.वाजपेयी सरकार में दोनों देशों के बीच कई द्विपक्षीय दौरे हुए. 1992 में इसराइल से राजनयिक संबंध क़ायम होने के बाद भारत की ओर से पहली बार 2000 में तत्कालीन गृह मंत्री आडवाणी और विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने इसराइल का दौरा किया.लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी किताब ‘माई कंट्री माई लाइफ़’ में अपने इसराइल दौरे को लेकर लिखा है, ”जून 2000 में इसराइल की मेरी पाँच दिवसीय यात्रा से उस देश के साथ मेरे पुराने संबंध फिर से ताज़ा हो गए. नई परिस्थितियों में मित्रता बढ़ाने और द्विपक्षीय सहयोग को सशक्त करने में बड़े उपयोगी साबित हुए. 1995 में भाजपा अध्यक्ष के रूप में मैं इसराइल गया था. दोनों देशों, जिनमें कई बातों में समानता है, के बीच राजनयिक संबंधों के पूर्ण सामान्यीकरण में अपनी भूमिका पर मुझे गर्व है.”पिछले हफ़्ते फ़लस्तीनी चरमपंथी संगठन हमास ने इसराइल में घुसकर हमला किया तो भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुलकर कहा कि भारत इस आतंकवादी हमले के ख़िलाफ़ इसराइल के साथ खड़ा है.नरेंद्र मोदी ने इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू से बात भी की और मुश्किल वक़्त में साथ खड़े होने की बात दोहराई.आज के इस वीडियो में इतना देखते रहिए 4sidetv शुक्रीया
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