माँ बनना एक महिला के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात होती है। एक महिला माँ बनने पर ही सम्पूर्ण मानी जाती है। लेकिन आज के इस दौर में महंगाई व आफिस का काम व घर का काम करते हुए हुए एक महिला अधिक बोझ नहीं झेल पा रही है। इस कारण महिला गर्भपात ही समस्या का समाधान समझ रही है। 26 सप्ताह के गर्भ को मारने के मामले में गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला सुनाया है। अदालत ने एक महिला की याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि हम किसी भी बच्चे को नहीं मार सकते हैं। शीर्ष अदालत ने कहा कि हमें अजन्मे बच्चे के अधिकार के साथ-साथ मां के अधिकार को बैलेंस करने की जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट ने दो बच्चों की मां को 26 हफ्ते के गर्भ को समाप्त करने की अनुमति देने वाले अपने आदेश को वापस लेने की केंद्र की याचिका पर सुनवाई करते हुए गुरुवार को कहा कि उसे एक अजन्मे बच्चे के अधिकारों तथा स्वास्थ्य के आधार पर उसकी मां के स्वायत्त निर्णय लेने के अधिकारों के बीच संतुलन स्थापित करना होगा। दो बच्चों वाली एक विवाहित महिला को 26 हफ्ते के गर्भ को समाप्त करने की अनुमति दी जाए या नहीं, इस पर असमंजस का सामना करते हुए, CJI DY चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने महिला के वकील से पूछा कि क्या वह (याचिकाकर्ता) चाहती है कि शीर्ष अदालत AIIMS के डॉक्टरों को न्यायिक आदेश के तहत ‘जीवित और सामान्य रूप से विकसित भ्रूण’ की धड़कन रोकने के लिए कहे। बेंच में न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा भी शामिल थे।गर्भ का चिकित्सकीय समापन (एमटीपी) अधिनियम के तहत गर्भावस्था को समाप्त करने की ऊपरी सीमा विवाहित महिलाओं और बलात्कार पीड़िताओं सहित विशेष श्रेणियों और विकलांग तथा नाबालिगों के लिए 24 हफ्ते है। पीठ ने केंद्र और महिला के वकील को उससे (याचिकाकर्ता से) गर्भावस्था को कुछ और हफ्तों तक बरकरार रखने की संभावना पर बात करने को कहा।यह मुद्दा उस वक्त उठा जब AIIMS मेडिकल बोर्ड के एक चिकित्सक ने 10 अक्टूबर को एक ई-मेल भेजा था, जिसमें कहा गया था कि इस चरण पर गर्भ समाप्त करने पर भ्रूण के जीवित रहने की प्रबल संभावना है। इससे पहले बोर्ड ने महिला की जांच की थी और छह अक्टूबर को शीर्ष अदालत के सामने रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। प्रधान न्यायाधीश ने कहा, “हम बच्चे को नहीं मार सकते।”अदालत इस नैतिक दुविधा से जूझ रही थी कि बच्चे के जन्म का आदेश दिया जाए या मां की पसंद का सम्मान किया जाए। पीठ ने कहा, “अगर बच्चा विकृति के साथ पैदा होता है, तो कोई भी उसे गोद नहीं लेगा।” पीठ ने इसे “कड़वा सच” करार देते हुए कहा कि भारत में लोग विकृत बच्चों को गोद लेना पसंद नहीं करते हैं और हालांकि कुछ अपवाद भी हैं, लेकिन लोग आमतौर पर ऐसा नहीं करते हैं।इसमें कहा गया है कि न्यायाधीशों का काम अधिकारों और कर्तव्यों तथा सामाजिक भलाई के बीच संतुलन बनाना है। इससे पहले याचिकाकर्ता के वकील ने गर्भ समाप्त करने के पक्ष में जोरदार दलील दी और पूछा कि अगर एक अविवाहित गर्भवती महिला ने अदालत से संपर्क किया होता तो क्या अदालत ने यही रुख अपनाया होता, पीठ ने कहा, “हम सर्वोच्च न्यायालय हैं।”बेंच ने कहा, “यह किसी नाबालिग पीड़िता का मामला नहीं है, जो गर्भवती हो गई है और न ही यह उस महिला का मामला है, जो यौन हिंसा या दुर्व्यवहार की शिकार है। वह (याचिकाकर्ता) एक विवाहित महिला है। उसके दो बच्चे हैं। निश्चित रूप से, प्राथमिक सवाल जो हम आपसे पूछना चाहते थे, वह यह है कि वह 26 सप्ताह तक क्या कर रही थी? उसे पहले दो बार गर्भधारण हुआ था। वह गर्भावस्था के परिणामों को जानती है।”CJI चंद्रचूड़ ने कहा, “आप क्या चाहते हैं, हम चिकित्सकों को क्या करने के लिए बोलें? आप चाहते हैं कि हम चिकित्सकों को यह सुनिश्चित करने के लिए कहें कि वे भ्रूण के दिल की धड़कन रोक दें? एम्स उच्चतम न्यायालय से यह निर्देश चाहता है।” जब वकील ने ‘नहीं’ में जवाब दिया, तो पीठ ने कहा कि जब महिला ने 24 सप्ताह से अधिक समय तक इंतजार किया है, तो क्या वह कुछ और हफ्तों तक भ्रूण को बरकरार नहीं रख सकती, ताकि एक स्वस्थ बच्चे के जन्म की संभावना हो।
याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि महिला अपनी समस्याओं और मानसिक स्थिति के कारण अपनी गर्भावस्था को जारी नहीं रखना चाहती है। उन्होंने कहा कि गर्भावस्था के कारण वह अपना ख्याल रखने में असमर्थ है और उसने खुद को एक कमरे में बंद कर लिया है तथा आत्महत्या के बारे में भी सोच रही है।पीठ ने कहा, “हमें अजन्मे बच्चे के अधिकारों को भी संतुलित करने की आवश्यकता है। निस्संदेह, महिला की स्वायत्तता पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। उसे संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत अधिकार है, उसे संविधान के विभिन्न प्रावधानों के तहत अधिकार है… लेकिन समान रूप से, आपको इस तथ्य से भी अवगत होना चाहिए कि आप जो कुछ भी कर रहे हैं वह अजन्मे बच्चे के अधिकारों को प्रभावित करने वाला है।”यह मामला CJI चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ के समक्ष उस वक्त आया जब बुधवार को दो न्यायाधीशों की पीठ ने महिला को 26-सप्ताह के गर्भ को समाप्त करने की अनुमति देने के अपने नौ अक्टूबर के आदेश को वापस लेने की केंद्र की याचिका पर खंडित फैसला सुनाया। शीर्ष अदालत ने नौ अक्टूबर को महिला को यह ध्यान में रखते हुए गर्भ को चिकित्सीय रूप से समाप्त करने की अनुमति दी थी कि वह अवसाद से पीड़ित है और ‘भावनात्मक, आर्थिक और मानसिक रूप से’ तीसरे बच्चे को पालने की स्थिति में नहीं है।
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