मूर्ति छूने से मना किया तो पूरे शरीर में गुदवा लिया राम नाम, फिर बनाया ‘रामनामी समुदाय‘
आज भी भारत के कुछ हिस्से ऐसे हैं जहां पर भगवान का नाम किसी छोटी जाति के लोगों के मुंह से निकल जाता है तो भगवान ही दूषित हो जाते हैं क्योंकि कई जातियों को आज भी अछूत माना जाता है जो आगे चलकर एक अलग समुदाय में बंध जाते है, और ऐसे ही एक समुदाय की कहानी आज हम आपको इस आर्टिकल के ज़रिए बताएंगे। जिसका नाम रामनामी समुदाय है, जो आज के समय समय धीरे धीरे विलुप्त हो रहा है।
रामनमी समुदाय की कहानी-
जब जात से छोटे इंसान से ईश्वर को अलग कर दिया गया, तब ऐसे में राम नाम को अपना कर रामनामी कहे जाने वाले लोगों ने मदिंर और मुर्ति दोनों का त्याग करके राम को ही अपने कण-कण में बसा लिया। देश में जाति की धारा ने जिन लोगों को काट कर अलग कर दिया उनके लिए अदम गोंडवी की एक कविता गहराई से चरितार्थ होती है।
रामनामि समुदाय का इतिहास
ये समाज अपनी इस परंपरा को लगभग 20 पीढ़ी से निभाता आ रहा है और राम का नाम ही है जो देश दुनिया में इन्हें अलग पहचान दे रहा है। ये समाज संत दादू दयाल को अपना मूल पुरुष मानता है, ये संप्रदाय सिर्फ राम का नाम ही शरीर पर नहीं गुदवाता बल्कि अहिंसा के रास्ते पर भी चलता है। ये न झूठ बोलते हैं न ही मांस खाते हैं। यह राम कहानी इसी देश में बसने वाले एक संप्रदाय रामनामी की है। जिनकी पहचान महज उनके बदन पर उभरे राम के नाम सिर पर विराजते मोर मुकुट से है, इस समुदाय की विचित्रता को देखना है तो एक बार छत्तीसगढ़ के कुछ गांवों में होने वाले भजन मेंले में जरूर शामिल हो कर देखिए।
ऐसे हुई परंपरा की शुरूआत
जब भारत में भक्ति आंदोलन चरम पर था, सभी धर्म के लोग अपने-अपने अध्येय देवी देवताओं की रजिस्ट्री करा रहे थे उस समय दलित की श्रेणी में रखे जाने वाले लोगों के हिस्से में न तो मंदिर आया ना ही मूर्ति और तो और इस तबके के लोगों के हिस्से से मंदिर के बाहर खड़े रहने तक का हक छीन लिया गया। लगभग एक सदी पहले इस समाज को छोटी जाति का कहकर मंदिरों में प्रवेश से मना कर दिया गया था, इसके आलावा इन्हें पानी के लिए सामूहिक कुओं का उपयोग करना भी मना था। जब मंदिर वाले धर्म के सारे रास्ते बंद हो गए फिर शुरु हुई इनकी भगवान राम के प्रति आस्था।
1890 के आसपास हुई थी रामनामी संप्रदाय की स्थापना
1890 में एक दलित युवक परशुराम ने हिंदु परंपरा से खुद के सामाज को कटते देख कर की थी। रामनामी समाज के लोग मूर्ति पूजा और मंदिर जाने पर यकिन नहीं रखते हैं लेकिन राम का नाम बदन पर गुदवाना इनकी परंपरा और संस्कृति का हिस्सा है। इस समाज में पैदा हुए लोगों के लिए शरीर के कुछ हिस्सों में टैटू बनवाना जरूरी है। परंपरा है कि 2 साल की उम्र होने तक बच्चों की छाती पर राम नाम का टैटू बनवाना अनिवार्य है।
नई पीढ़ी से विलुप्त हो रही इनकी परंपरा
आज भले ही शहरो में टैटू बनवाना फैशन का एक हिस्सा है लेकिन एक सदी से चली आ रही इस समुदाय की परंपरा को इनकी नयी पीढ़ी अपना नहीं पा रही है। कुछ लोग गोदना से होने वाले दर्द की वजह से इस प्रथा को छोड़ रहे हैं तो कुछ लोग रोजगार के कारण। रामनामी समाज ने अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए कानूनन रजिस्ट्रेशन भी कराया है। ये हर 5 साल में अपने मुखिया का चुनाव करते हैं और अपने मुखिया का अनुसरण करते हैं। लेकिन शायद इनकी नयी पीढ़ी की वजह से या समाज में हो रहे लगातार बदलाव से इस संप्रदाय की यह अनूठी परंपरा आने वाले वक़्त में शायद खत्म हो जाए।
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